भारतीय इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायक पॉँच महत्वपूर्ण अभिलेख
प्रस्तावना
इतिहास लेखन का सबसे महत्वपूर्ण एवं विश्वसनीय स्रोत उत्कीर्ण अभिलेख हैं |
उत्कीर्ण अभिलेखों के अध्ययन को अभिलेख-शास्त्र या एपीग्राफी कहा जाता है |
अभिलेख मुहरों, पत्थर के स्तंभों, स्तूपों, चट्टानों तथा ताम्रपत्रों पर
मिलते हैं | इसके साथ-साथ मंदिर की दीवारों, ईटों तथा मूर्तियों आदि पर भी
अभिलेखों की प्राप्ति होती है |
प्राचीन भारतीय इतिहास लेखन के लिए हमें अनेक प्रकार की सामग्रियां जुटाने पढ़ती
है जिनमें से प्रायः मूक सामग्रियां की अत्याधिक हैं जिनकी मूक भाषा में ही
मुखर कहानियां सुननी पड़ती है | साथ ही वह भी इतनी उलझी गुत्थी है कि उसको इतिहास
की कसौटी पर रखकर सुलझाना भी बहुत सरल कार्य नहीं है | फिर भी हमारे पास
इतने साधन है कि उनको जोड़ कर हमारा सारा का सारा प्राचीन इतिहास बड़ी सरलता एवं
वैज्ञानिकता के साथ तैयार किया जा सकता है इसके मूल स्रोतों में एक पठनीय तथा
प्रमाणिक स्रोत है अभिलेख, जो भारत भूमि में बिखरे पड़े हैं | आवश्यकता है
इनको पढ़ने तथा समझने की इनके द्वारा हमारा अतीत पुनः अपने वास्तविक रूप में
जीवित हो उठता है तथा सत्य की अनवरत धारा में अपने इतिहास सुनाने लगता है |
यह अभिलेख भले ही राज आश्रित या व्यक्तिगत छाया में खुदे हो पर इनमें ऐसी
ऐतिहासिक सामग्रियां संजोई गई है
जो समकालीन है, सत्य है, तथा विश्वसनीय है | समग्र देश में आरंभिक अभिलेख
पत्थरों पर खुदे मिलते हैं किंतु ईसवी सन के प्रारंभिक शतकों में इस कार्य
में ताम्र पत्रों का प्रयोग प्रारंभ हुआ | कुछ तो हमारे इतिहास में ऐसे शासक
तथा राजवंश हुए जिन का ज्ञान भी हमें नहीं हो पाता यदि उनके अभिलेख प्राप्त ना
होते और यदि अन्य स्रोतों से ज्ञान होता भी तो वह संकेतिक रूप में ही रहता |
अभिलेखों से हमें निम्नलिखित जानकारियां प्राप्त करने में मदद मिलती है |
- शासकों का व्यक्तिगत चरित्र
- तिथि क्रम की उलझी हुई गुत्थी सुलझाना
- राजनैतिक स्थिति
- समकालीन धार्मिक स्थिति
- आर्थिक स्थिति
- समकालीन सामाजिक परिवेश
- शासकों के साम्राज्य विस्तार संबंधी सूचनाएं
- तत्कालीन लिपि भाषा एवं साहित्य
आगे इस कड़ी में हम पांच उन महत्वपूर्ण अभिलेखों के बारे में जानेंगे जो प्राचीन
भारतीय इतिहास के पुनर्निर्माण में अमूल्य तथा उल्लेखनीय योगदान देते हैं |
1. सम्राट अशोक का रुम्मिनदेई (लुम्बिनी) लघु स्तम्भ लेख
Details about Rummindeyi Inscription by Ashok, Pipariya
-
प्राप्ति स्थल - पिररिया के निकट रुम्मिनदेई मंदिर (नेपाल तराई)
- भाषा - प्राकृत
- लिपि - ब्राह्मी
- काल - राज्य का 20 वां वर्ष (लगभग 249 ई. पूर्व)
-
विषय - अशोक द्वारा बुद्ध के जन्मस्थान की यात्रा के स्मारक में
स्तम्भ स्थापन एवं कर मुक्ति
ऐतिहासिक महत्व:
अशोक के लघु स्तम्भ लेखों में रुम्मिनदेई प्रज्ञापन कई दृस्तियों से
महत्वपूर्ण है |
इस लेख की खोज फ्यूरर ने की थी तथा जॉर्ज ब्यूलर ने इसे अनुवाद सहित
Epigraphia Indica के पांचवे खंड में प्रकाशित किया
| यह लेख अन्य सभी लेखों से सर्वथा भिन्न है | इसमें अशोक ने किसी भी
रूप में धर्म का प्रतिपादन न कर कतिपय ऐतिहासिक तथ्यों का उल्लेख मात्र किया है
| इस अभिलेख के अनुसार (अशोक) अपने राज्याभिषेक के 20 वर्ष पश्चात, देवताओं
का प्रिय राजा प्रियदर्शी, स्वयं यहां आए और पूजा की क्योंकि यहां शाक्यमुनि
बुद्ध का जन्म हुआ था तथा साथ ही बहुत बड़ी पत्थर की एक दीवार बनवाई तथा एक
स्तम्भ भी स्थापित किया | इस अभिलेख के सबसे महत्वपूर्ण बिंदु का
उल्लेख करें तो अशोक ने लुंबिनीवासियों (क्योंकि बुध का जन्म कहां हुआ था)
का धार्मिक कर बलि को माफ कर दिया था तथा भूमि कर घटाकर 1 / 8 भाग
कर दिया | यह अभिलेख आर्थिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है |
- प्रस्तुत अभिलेख बुद्ध के जन्म स्थान का अभिलेखीय प्रमाण है
-
अशोक ने अपनी यात्रा के उपलक्ष्य में यहां धार्मिक कर माफ़ किया
-
राजस्व का भाग जो मौर्य शासन में चतुर्थांश था घटाकर अष्टांश कर देने की
घोषणा की
2. हेलओडोरस का बेसनगर गरुणध्वज अभिलेख
Details about Besnagar Inscription of Heliodorous, Vidisha, Madhya
Pradesh
- प्राप्ति स्थल - बेसनगर, जिला - भिलसा (विदिशा), मध्यप्रदेश
- भाषा - प्राकृत (संस्कृत प्रभावित)
- लिपि - ब्राह्मी
-
काल - राजा भागभद्र के शासन का 14वां वर्ष (Approx. 2nd Century
B.C.)
-
विषय - यवन दूत हेलओडोरस द्वारा तक्षशिला से आकर विदिशा में गरुण
ध्वज की स्थापना
दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व का यह अभिलेख अत्यंत महत्वपूर्ण है | समकालीन
राजनीतिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक स्थिति पर यह अभिलेख विशेष प्रकाश डालता है
| इस अभिलेख में 4 व्यक्तियों के नाम आते हैं | इस अभिलेख में
निर्दिष्ट है कि तक्षशिला निवासी भागवत दिय का पुत्र हेलस जो महाराज
अंतलिकितश की ओर से यवन दूत था, यहां भागभद्र के शासनकाल के 14वें वर्ष
पर आकर गरुड़ध्वज स्थापित किया |
महत्वपूर्ण बिंदु :
-
इस अभिलेख मैं बैक्ट्रिया से आए ग्रीक राजाओं के इतिहास पर उल्लेखनीय प्रकाश
पड़ता है तथा ब्राह्मी लिपि में कई Indo-Greek राजाओं के नाम का उल्लेख करने
वाला या एकमात्र अभिलेख है
-
यह एकमात्र ऐसा अभिलेख है जिसमें राजदूत उल्लेख मिलता है इसका उद्देश्य
भागभद्र से मैत्री स्थापित करना और उससे राजनीतिक सहायता प्राप्त करना मालूम
होता है
-
धार्मिक इतिहास की दृष्टि से भी यह अभिलेख महत्वपूर्ण है | वैष्णव धर्म
के प्रचार के इतिहास पर यह अभिलेख प्रकाश डालता है | यह संप्रदाय अत्यंत
प्राचीन काल से प्रचलित था
-
सांस्कृतिक दृष्टि से यह अभिलेख महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें एक ग्रीक (यवन)
के भागवत धर्म स्वीकार करने एवं स्वयं को गर्व पूर्वक भागवत घोषित करने का
उल्लेख मिलता है | इस प्रकार यह माना जा सकता है कि ईसा पूर्व की तीसरी-दूसरी
शताब्दियों में उत्तरी-पश्चिमी एशिया से जो विदेशी यहां आए थे, यहां की
धार्मिक परंपराओं, देवी देवताओं एवं पूजा पद्धतियों से अत्याधिक प्रभावित हुए
| उन्होंने अपनी रूचि के अनुसार बौद्ध, शैव एवं वैष्णव धर्म को अपनाया |
यह उनके भारतीय समाज में मिश्रण का उल्लेखनीय उदाहरण है
-
इसके दूसरे भाग में एक पद दिया गया है जिसमें दम, त्याग और प्रमाद अथवा (संयम
त्याग और निरालस्यता) तीन अमृत पद अभिलिखित हैं भारत महाभारत में
इसका उल्लेख "दमस्तयागोडप्रमादश्च एतेष्वमृतमहितम" इस प्रकार है
| ऐसा अनुमान किया जाता है कि यह पद महाभारत के उल्लेख का प्राकृत
रूपांतरण है | यह ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में महाभारत की लोकप्रियता का
प्रमाण है
3. खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख
Details about Hathigumpha Inscription of Kalingraj Kharvel, Udaygiri,
Orisha
-
प्राप्ति स्थल - भुवनेश्वर के निकट उदयगिरि, जिला - पूरी (ओड़िशा)
- भाषा - प्राकृत
- खोजकर्ता - विशप स्टार्लिन
- लिपि - ब्राह्मी
- काल - लगभग प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व का उत्तरार्ध
-
विषय - चेदि वंश के राजा कलिंगराज खारवेल के जीवन की
घटनाओं का क्रमिक विवरण एवं उसकी राजनीतिक उपलब्धियों तथा लोकमंगल के
कार्यों का उल्लेख
इस लेख को पढ़ने का प्रयास विभिन्न विद्वानों ने किया परंतु पाठ की दृष्टि से के
पी जायसवाल और राखल दास बनर्जी का संयुक्त प्रयास तथा बरुआ का अध्ययन विशेष
विचारणीय समझा जाता रहा है |
ऐतिहासिक महत्व (Historical Importance)
हाथीगुम्फा अभिलेख भारतीय अभिलेख की में अपने ढंग का अनोखा औरराजप्रशस्तियों में
सर्वथा भिन्न है | इस प्रकार से वर्ष-वार क्रमिक विवरण देने वाला वाले किसी
दूसरे लेख का ज्ञान भारतीय इतिहास में नहीं है | प्रस्तुत अभिलेख में खारवेल
का जीवन परिचय देते हुए उन्हें चेदि वंश का बताया गया है जो कलिंग
राजवंश की तीसरी पीढ़ी में हुए थे |आरम्भ में उनके शैशव की चर्चा करते हुए
उनके प्रारंभिक शिक्षा उल्लेख किया गया है | पंद्रह वर्ष की अवस्था में वह युवराज
हुए तथा 24 वर्ष की अवस्था में उन्होंने राज्यभार ग्रहण किया | तदान्तर में
उन्होंने शासक के रूप में जो कुछ भी किया उसका क्रमिक वितरण इस अभिलेख में
उल्लेखित है |
महत्वपूर्ण बिंदु
-
अभिलेख का आरंभ अर्हतों के नमस्कार से हुआ है इसलिए यह निश्चित ही समझा जाता
है कि खारवेल जैन धर्म मतानुयायी थे तथा जैन धर्म को स्थापित करने में
महत्वपूर्ण योगदान दिया था |
-
अभिलेख में खारवेल के लोकहित कार्यों और विजय अभियानों की चर्चा है -
लोकहित कार्यों में कलिंग नगरी की गोपुरों, प्राकारों, मकानों
का प्रति संस्कार, तालाबों के बांधों की मरम्मत, बगीचों का सवारना,
लोकरंजन के लिए नृत्य, गीत, वादन का आयोजन राज कर की माफ़ी, दान आदि का उल्लेख
है | अर्हतों के वर्षावास निमित्त लयड का निर्माण भी इस प्रकार का
कार्य कहा जा सकता है |
-
राजनीतिक इतिहास की दृष्टि से खारवेल के अभियान का विशेष महत्व है | इस
अभिलेख में उसके दूसरे, चौथे, आठवें, ग्यारहवें वर्ष में किए गए
अभियानों का संक्षिप्त उल्लेख है | इन विवरणों से ऐसा प्रतीत होता है
उसके यह अभियान सैनिक शक्ति प्रदर्शन मात्र थे, उसने किसी प्रकार का कोई
भू-विजय किया ऐसा प्रतीत नहीं होता है |
- पहला अभियान - पश्चिम दिशा में ऋषिक (मुसिक) नगर तक हुआ था |
-
दूसरा अभियान - पश्चिम दिशा में विंध्य पार कर राष्ट्रिकों और भोजकों को
परास्त किया |
-
तीसरा अभियान खारवेल ने उत्तर की ओर किया | इस बार उसने राजगृह के निकट
गोरथगिरी तक धावा मारा |
- चौथा अभियान अभियान पिथुण्ड नगर के विरुद्ध किया |
-
बारहवें वर्ष में खारवेल ने अपना चौथा अभियान उत्तर के राजाओं के विरुद्ध
किया था पर अभिलेख की पंक्तियां स्पष्ट ना होने के कारण इस अभियान के
स्वरूप का अनुमान नहीं किया जा सकता | इतना ही स्पष्ट है कि इस अभियान
में वह पाटलिपुत्र आया और मगध नरेश वृहस्पति मित्र ने उसकी अधीनता अधीनता
स्वीकार की |
-
अभियानों के आधार पर राज्य सीमा का सहज अनुमान - खारवेल का
राज्य बहुत विस्तृत नहीं था | उसके अभियानों के आधार पर उसकी
राज्य सीमा का सहज अनुमान किया जा सकता है | उत्तर में वह मगध को
छूता था, पश्चिम में उसकी सीमा कदाचित वेनगंगा तथा दक्षिण में वह गोदावरी
तक थी | पूर्व में समुद्र उसकी प्राकृतिक सीमा थी |
-
भारतवर्ष का उल्लेख करने वाला यह प्रथम अभिलेखीय प्रमाण माना जाता है |
-
एक अन्य महत्वपूर्ण बिंदु जो इस अभिलेख से प्राप्त होता है वह यह है कि
खारवेल ने अपने राज्य में नंद राजा द्वारा 300 वर्ष पूर्व निर्मित
तनसूलीय नामक नहर को उसने अपनी राजधानी में सिंचाई की सुविधा प्रदान
करने के लिए बढ़ावा दिया |
-
अपने शासन के तेरहवें यानी अंतिम वर्ष में खारवेल में कुमारी पर्वत पर
जैनों की एक सभा बुलाई और उस सभा में जैन धर्म के आठों अंगों और
चौंसठ कलाओं को पुनः संगठित किया गया |
4. रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख
Details about Junagarh Inscription of Rudradaman,Junagarh, Gujrat
- प्राप्ति स्थल - जूनागढ़, गुजरात
- भाषा - संस्कृत
- खोजकर्ता - भगवान लाल इंद्र
- लिपि - ब्राह्मी
- काल - रुद्रदामन के राज्य काल का 72वां वर्ष
-
विषय - रुद्रदामन के प्रांतीय शासक सुविशाख द्वारा सुदर्शन बांध का
पुनर्निर्माण, बांध का पूर्व इतिहास, रुद्रदामन के राजनीतिक उपलब्धियों का
विवरण
ऐतिहासिक महत्व (Historical Importance)
यह अभिलेख काठियावाड़ के जूनागढ़ जिले में गिरनार पर्वत के कण्ट प्रदेश में घाटी
की ओर जाने वाले भाग में शुद्ध संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण है | अशोक तथा स्कंद
गुप्त के भी अभिलेख इस पर्वत पर अंकित हैं अतः यह ऐतिहासिक और पर्यटन के महत्व का
स्थान रहा होगा | इस अभिलेख की भाषा को शुद्ध संस्कृत में होने का गौरव प्राप्त
है | इस अभिलेख से रुद्रदामन के वंश, कृतित्व, व्यक्तित्व और सुदर्शन झील के
इतिहास पर प्रकाश पड़ता है तथा समकालीन इतिहास भी आलोकित होता है |
सुदर्शन झील का इतिहास एवं इतिहास बोध का परिचय
इस अभिलेख में सुदर्शन नामक कृत्रिम झील के बांध के टूट जाने पर शक महाक्षत्रप
रूद्रदामन के अमात्य पह्लव कुलेप पुत्र सुविशाख द्वारा उसके पुनर्निर्माण कराए
जाने का उल्लेख है | इस झील की अवस्थिति की खोज सर्वप्रथम 1878 ईस्वी में भगवान
लाल इंद्र जी ने की थी | इस अभिलेख की एक विशेषता, जिसकी और लोगों ने कम ध्यान
दिया है, यह है कि इसमें तत्कालीन इतिहास बोध का परिचय मिलता है | इस अभिलेख में
झील के बांध के पुनर्निर्माण की चर्चा करते समय झील के 500 वर्ष पूर्व के इतिहास
का भी उल्लेख है | इसमें न केवल यह कहा गया है कि मौर्यवंशी चंद्रगुप्त ने इसे
बनवाया और अशोक ने इसका विस्तार किया वरन इस बात का भी उल्लेख है कि उसके निर्माण
विस्तार में उनके किन अधिकारियों का हाथ था | इस प्रकार का विस्तृत उल्लेख इस बात
का प्रमाण है कि उस समय भी लोग इतिहास के महत्व से परिचित थे | पुनः इस अभिलेख
में रुद्रदामन के समय इस झील की दशा और भी अधिक सोचनीय हो गई हो चुकी थी | इसने
अपने सभासदों के विरोध करने पर भी जन कल्याण के लिए बिना जनता पर किसी प्रकार का
अतिरिक्त, अनुचित और अनियमित कर लगाए इसको पुनर्निर्मित कराया | इस झील का
जीर्णोद्धार रुद्रदामन ने मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष के प्रथम दिवस 72वें वर्ष में
कराया था | इस प्रकार इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि रुद्रदामन 72 + 78 = 150
ईसवी में शासन करता था | इस प्रकार सुदर्शन झील के संबंध में व्यवस्थित विवरण तथा
इसकी पूर्व इतिहास इस अभिलेख से पता चलता है |
राजनीतिक उपलब्धियां
राजनीतिक इतिहास की दृष्टि से इस अभिलेख की 9 से 16 तक की पंक्तियां महत्वपूर्ण
है | इन पंक्तियों में रुद्रदामन ने पुरुषोचित गुण, विद्या, अनुराग, वीरता, धर्म
परायणता आदि की चर्चा की गई है | इस अंश में सत्यता और चाटुकारिता दोनों ही हो
सकती हैं | इसके अनुसार रुद्रदामन के शासनकाल में उसके राज्य के अंतर्गत आकर
अवन्ति, अनूप आनर्त, सुराष्ट्र, स्वभ्र, मरू, कच्छ, सिंधु, सौवीर, कुकुर, अपरांत,
निषाद के प्रदेश थे | साथ ही साथ प्रस्तुत अभिलेख के 12 वीं पंक्ति में रुद्रदामन
के संबंध में यह कहा गया है कि उसने दक्षिणापथ-पति सातकर्णि को युद्ध में दो बार
पराजित किया था | अतः संभावना है कि इस युद्ध के परिणाम स्वरुप ही यह प्रदेश उसके
हाथ लगे होंगे |
5. समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति
Details about Prayag Inscription of Samudragupta, Prayagraj, Uttar
Pradesh
-
प्राप्ति स्थल - प्रयागराज (इलाहाबाद), उत्तर प्रदेश (मूलतः कौशांबी
में था जहां से इलाहाबाद किले में लाया गया)
- भाषा - संस्कृत
- लिपि - ब्राह्मी
- लेखक - हरिषेण
- काल - समुद्रगुप्त का शासनकाल (335-376 ईसवी)
- विषय - समुद्रगुप्त का जीवन चरित्र तथा उपलब्धियों का विवरण
ऐतिहासिक महत्व (Historical Importance)
मूल रूप से कौशांबी में स्थापित तथा वर्तमान में इलाहाबाद जिले में
अवस्थित कौशांबी के अशोक स्तंभ पर अशोक के लेख के नीचे गुप्त ब्राह्मी लिपि में
समुद्रगुप्त का यह लेख उत्कीर्ण है | इसे महादंडनायक ध्रुवभूति के पुत्र
समुद्रगुप्त के कुमारामात्य एवं संधिविग्रहक हरिषेण नामक कवि ने उत्कीर्ण कराया
था | यह मात्र अकेला अभिलेख समुद्रगुप्त के शासन और व्यक्तित्व के विषय में अब तक
के प्राप्त अभिलेखों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है |
तत्कालीन भारत की राजनीतिक अवस्था का ज्ञान
इस अभिलेख में समुद्रगुप्त की विजय का उल्लेख करते हुए प्रशस्तिकार नें भारत के
केवल मध्य तथा पश्चिम क्षेत्र को छोड़कर शेष भागों की राजनीतिक अवस्था का वर्णन
किया है, जिसे समुद्रगुप्त ने जीता था |
सीमावर्ती राज्यों की विजय
इनमे है -
- समतट (समुद्र तटीय भाग - दक्षिण पूर्वी बंगाल)
- डवाक (दिनाजपुर के पास)
- कामरूप (असम प्रांत के गुवाहाटी)
- नेपाल (काठमांडू की घाटी)
- कर्तपूरा (गढ़वाल कुमाऊं का भाग)
अतः उत्तरी पश्चिमी तथा पूर्वी सीमा के यह राजतंत्रीय राज्य थे |
पश्चिमी भारत के राज्यों की विजय
यहां छोटे-छोटे नौ गणराज्यों का उल्लेख है -
- मालव
- अर्जुनायन
- यौधेय
- मद्रक
- आभीर
- प्राजून
- सनकानिक
- खरपरिक
- काक
यह जनता द्वारा शासित गणराज्य थे जिन्हें समुद्रगुप्त ने जीता था |
आर्यावर्त के राज्य
अपनी दिग्विजय की प्रक्रिया में समुद्रगुप्त ने सर्वप्रथम उत्तर भारत में एक छोटा
सा युद्ध किया जिसमें तीन शक्तियों को पराजित किया इन शक्तियों के नाम इस प्रकार
हैं -
- अच्युत
- नागसेन
- कोतकुलज
के पी जयसवाल का विचार है कि इन 3 राजाओं ने एक सम्मिलित संघ बना लिया था और
समुद्रगुप्त ने इस संघ को कौशांबी में पराजित किया था |
दक्षिणापथ का युद्ध
दक्षिणापथ से तात्पर्य उत्तर में विंध्य पर्वत से लेकर दक्षिण में कृष्णा तथा
तुंगभद्रा नदियों के बीच के प्रदेश से है | प्रशस्ति के 19वीं तथा 20वीं
पंक्तियों में दक्षिणापथ के 12 राज्यों तथा उनके राजाओं के नाम मिलते हैं | इन
राज्यों को पहले तो समुद्रगुप्त ने जीता किंतु फिर कृपा करके इन्हें स्वतंत्र कर
दिया | इसे
ग्रहणमोक्षानुग्रह कहा गया है | उनकी इस नीति को धर्म विजयी
राजा की नीति का सकते हैं | इस लेख में एक स्थान पर वर्णित है कि
उन्मूलित राजवंशों को पुनः प्रतिष्ठित करने के कारण उसकी कृति संपूर्ण जगत में
व्याप्त हो गई हो रही थी |
राज्यों के नाम इस प्रकार हैं -
- कोसल का राजा महेंद्र
- महाकालंतर का राजा व्याघ्रराज
- कौशल का राजा मटराज
- पिष्टूपुर का राजा महेंद्रगिरी
- कोरटूर का राजा स्वामीदत्त
- एरनपल्ल का राजा दमन
- कांची का राजा विष्णुगोप
- अवमुक्त का राजा नीलराज
- वेंडी का राजा हस्तिवर्मा
- पाल्लक का राजा उग्रसेन
- देवराष्ट्र का राजा कुबेर
- कुस्थल पुर का राजा धनंजय
आर्यावर्त का द्वितीय युद्ध
दक्षिणापथ के अभियान से निवृत होने के पश्चात समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत में पुनः
एक युद्ध किया जिसे आर्यावर्त का द्वितीय युद्ध कहा गया | ऐसा प्रतीत होता है कि
प्रथम युद्ध में उसने उत्तर भारत के राजाओं को केवल परास्त ही किया था, उनका
उन्मूलन नहीं किया था | राजधानी में उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर उत्तर के
राजाओं ने पुनः स्वतंत्र होने की चेष्टा की | अतः दक्षिण की विजय के वापस लौटने
के बाद समुद्रगुप्त ने उन्हें पूर्णतया उखाड़ फेंका | इस नीति को
प्रसभोद्धरण कहा है | यह दक्षिण में अपनाई गई
ग्रहणमोक्षानुग्रह की
नीति के प्रतिकूल थी | यह राज्य इस प्रकार हैं -
- रुद्रदेव
- मत्तिल
- नागदत्त
- चन्द्रवर्मा
- गणपतिनाग
- नागसेन
- अच्युत
- नंदी
- बलवर्मा
आर्यावर्त के द्वितीय युद्ध की के परिणाम स्वरुप समुद्रगुप्त ने समस्त उत्तर
प्रदेश तथा मध्य प्रदेश के एक भाग पर अपना सुदृढ़ अधिकार कर लिया |
आटविक राज्यों पर विजय
प्रशस्ति के 21वीं पंक्ति में ही आटविक राज्यों की भी चर्चा हुई है इसके विषय
में बताया गया है कि समुद्रगुप्त ने आटविक राज्यों को अपना सेवक बना लिया |
विदेशी शक्तियां
प्रशस्ति के 23 में 24 में पंक्ति में कुछ विदेशी शक्तियों के नाम दिए गए हैं
जिनके विषय में यह बताया गया है कि वह स्वयं को सम्राट की सेवा में उपस्थित करना,
कन्याओं के उपहार आदि विविध उपायों के द्वारा सम्राट की सेवा किया करते थे | इन
शक्तियों के नाम इस प्रकार हैं -
- कुषाण (देवपुत्रपाहिषाहानुषाहि)
- शक
- मुरुण्ड
- सिंहल
समुद्रगुप्त का चरित्र चित्रण
इस अभिलेख से उसके चरित्र के निम्नलिखित गुणों का वर्णन मिलता है -
- धर्म के बंधन में जो बंधा हो (धर्म प्राचीर बंध:)
- शास्त्रों के तत्वों को समझने वाला (शास्त्र तत्वार्थ भर्तु:)
-
काव्य के क्षेत्र में इसकी कीर्ति व्याप्त थी (कविता कीर्ति राज्य भुनक्ति:)
- चंद्रमा के समान धवल कीर्ति वाला (शशिकर शुचय: कीर्ति:)
- संगीत में नारद जैसे आचार्य को पराजित किया किया था (
अश्वमेध यज्ञ
अपनी विजयों से निवृत होने के पश्चात समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया था |
लगता है कि इस यज्ञ का अनुष्ठान प्रशस्ति प्रशस्ति लिखे जाने के बाद हुआ इस कारण
से इस प्रशस्ति में यज्ञ का उल्लेख नहीं मिलता है |
इस प्रकार समुद्रगुप्त की प्रतिभा बहुमुखी थी | चाहे जिस प्रकार से देखा जाए
वह महान था | प्रयाग प्रशस्ति का कथन है कि विश्व में ऐसा कौन सा गुण है जो
उसमें नहीं है | मजूमदार के शब्दों में लगभग 5 शताब्दियों के राजनीतिक
विकेंद्रीकरण तथा विदेशी आधिपत्य के बाद आर्यावर्त पुनः नैतिक भौतिक तथा
बौद्धिक उन्नति की चोटी पर पहुंचा |
निष्कर्ष
उपरोक्त अभिलेखों के अध्ययन से प्राचीन भारतीय इतिहास के विभिन्न पहलुओं के
सम्बन्ध में विस्तृत और विश्वशनीय सूचनाएं प्राप्त होती हैं जो तत्कालीन
समाज के राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, बौद्धिक तथा सामाजिक स्थिति पर प्रकाश
डालती हैं |